["बादलों के पार नीलाकाश को देखने मात्र से शान्ति को , सौम्यता को उपलब्ध होओ ."]
इस सूत्र में विचारणा नहीं देखना बुनियादी है . आकाश असीम है ; उसका कहीं अंत नहीं है . उसे महज देखो . वहां कोई विषय-वस्तु नहीं है . यही कारण है कि आकाश चुना गया है . आकाश कोई विषय नहीं है . भाषागत रूप से वह विषय है ; लेकिन अस्तित्व में वह कोई विषय नहीं है . विषय वह है जिसका आरम्भ और अंत हो . तुम किसी विषय के चारों ओर घूम सकते हो ; लेकिन आकाश की परिक्रमा नहीं कर सकते . तुम आकाश में ही हो , लेकिन तुम आकाश के चारों तरफ नहीं घूम सकते . तुम आकाश के विषय बन सकते हो ; लेकिन आकाश तुम्हारा विषय नहीं बन सकता . आकाश में तो तुम झाँक सकते हो ; लेकिन आकाश पर नहीं झाँक सकते . और आकाश में झांकना अनंतकाल तक चल सकता है ; उसका कोई अंत नहीं है ; उसकी कोई सीमा नहीं है . और उसके संबंध में सोच-विचार मत करो . मत कहो कि यह कितना सुंदर है . मत कहो कि यह कितना मोहक है . उसके रंगों की प्रशंसा मत करो . उससे सोचना शुरू हो जाएगा. और सोचना शुरू करते ही देखना बंद हो जाता है ; अब तुम्हारी आंखें अनंत आकाश में गति नहीं कर रहीं . इसलिए सिर्फ देखो . अनंत आकाश में गति करो . विचार मत करो ; शब्द मत बनाओ . शब्द बाधा बन जाते हैं . इतना भी मत कहो कि यह नीलाकाश है . इसे शब्द ही नहीं दो . इसे नीलाकाश का महज दर्शन रहने दो--निर्दोष दर्शन . उसे देखो , उसमें प्रवेश करो , उसमें गहरे डूबो . लेकिन याद रहे , यह दखना निर्विचार देखना हो . तब तुम अपने अंतस में उसी आकाश को अनुभव करोगे , उसी आयाम को अनुभव करोगे . तब वही विराट , वही नीलिमा , वही शून्य तुम्हारे भीतर होगा .........
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